Interview with Ms. Alka Kaushik
Editor
18 May, 2017A
प्र1 . आपका बुनियादी अध्ययन अंग्रेजी में होने के बावजूद आपके सारे लेख हिंदी में होने का क्या कारण रहा है ?
उ. उत्तर भारत से होने के कारण मेरी मूल भाषा सदैव हिंदी रही है। माँ हिंदी प्रोफेसर थीं। इसी कारणवश बोरियत के समय जब अलमारी खंगालती तो संयोग से हिंदी साहित्य की किताबें हाथ लगती। किताबों का संग्रह बेहद वर्गीकृत होता था और शब्दावली बी.ए .,एम. ए . के लेवल की होती थी। जहा कही भी कुछ समझ न आता वहा माँ सहायता के लिए तत्पर रहतीं। इसी तरह साहित्य की इनफॉर्मल ट्रेनिंग हिंदी में और फॉर्मल ट्रेनिंग इंग्लिश में होती चली गयी। जर्नलिज्म के पश्चात जब लिखने का प्रयास किया तो रेफेरेंस के तौर पर अधिकतर लेख इंग्लिश के प्राप्त हुए , फिर चाहे माध्यम इंटरनेट या फिर लाइब्रेरी ही क्यों न हो। तब जाना की सन २००० में भी अगर हमारी पीढ़ी को ट्रेवल राइटिंग का रेफेरेंस चाहिए तो मुंशी प्रेमचंद के लेख ही उप्लब्ध थे। यही से एक आईडिया उत्पन्न हुआ के क्यों न एक ऐसी भाषा में ट्रेवल ब्लोग्स लिखें जाएं जो की इंडियन मासेस तक पहुंचे और जिन्हे मुझ जैसे बाइलिंगुअल लोग भी एन्जॉय कर सकें व साथ ही साथ इसमें कॉन्ट्रिब्यूट कर सकें।
प्र 2. आज के दौर में यात्रा मार्गदर्शक साथ रखने की बढ़ती लोकप्रियता है। यह अवधारणा किस हद तक फायदेमंद है। क्या इसमें सोलो ट्रिप वाला मज़ा है ?
उ. अगर व्यक्तिगत आधार पर बात की जाए तो सोलो ट्रिप इज़ नॉट माय कप ऑफ़ टी। हालात के चलते लोग सोलो या ग्रुप ट्रिप को अपने अपने हिसाब से प्लान करते हैं व उसे अपने मानचित्र में ढालते हैं। इन द ट्रूएस्ट सेंस ऑफ़ द वर्ड, सोलो ट्रिप्स होती हैं पर ऐसी ट्रिप्स करने वाले ट्रैवेलर्स और उनके प्रेरक अलग होते हैं। ट्रेवल कम्पैनियन के रूप में चाहे मार्गदर्शक हो या न हो , पर किसी भी नए भूगोल तक पहुंचने और वहा के अनुभव को यादगार बनाने के लिए ट्रैवल गाइड /बुक के डायरेक्ट इनपुट्स बहुत मददगार साबित होते हैं। विदेश से आये पर्यटक मात्र एक ऑथेंटिक गाइड और जी.पी.ऐस. की मदद से उन स्थलों तक भी अपना पैर जमा आते हैं जहाँ आम तौर पर लोगो का पहुचना संभव नहीं होता। अक्सर हमारे स्कूल /कॉलेज के मित्र या पड़ौसी ट्रिप पे हमारे साथ चल देते हैं या ट्रिप के दौरान ही और लोग जुड़ते चले जातें हैं। इसी तरह एक सोलो ट्रिप अपनी समाप्ति से पूर्व एक ग्रूप ट्रिप का रूप ले लेती है।
प्र 3. भारत के सभी पर्यटक स्थल अपने साथ एक रूढ़िवादी टैग लिए मौजूद हैं। क्या यात्रा करना वह एकलौता साधन है जिससे इस नज़रिए को बदला जा सके ?
उ. हम सभी का किसी भी पर्यटक स्थल को लेकर एक परसेप्शन होता है। उदाहरण के तौर पर आग्रा को ही ले लीजिए। दुनिया के सात अजूबों में से एक, ताज महल देखने जब हम आगरा पहुंचते हैं तो हमें वहा जा कर ही यह ज्ञात होता है की वहा आस पास का माहौल कैसा है। इसी तरह जब मैं छत्तीसगढ़ टूरिज्म के न्योते को स्वीकार कर जब बस्तर की तरफ चल दी तो सभी शुभचिंतको ने मुझे वहा के बढ़ते आतंक और माओवादी गतिविधियों को लेकर आगाह किया। दिल्ली से रायपुर के एकांत सफर के बाद मालूम हुआ के रायपुर हवाई अड्डा बेहद खूबसूरत व मनमोहक है परंतु आज से पहले कभी इसका उल्लेख न तो कभी पढ़ा और न ही कभी सुना था। वहा का मेटल आर्ट, साफ रस्ते, ट्राइबल कम्युनिटी का रहन सहन व टैटू आर्ट बहुत ही अद्भुत लगा। अगले पांच दिनों में मैंने बस्तर का हर सिरे से आवरण करने का प्रयास किया और मेरे साथ कोई भी दुर्घटना नहीं हुई। इस रूढ़िवादी टैग का होना बहुत हद तक मीडिया की वजह से है। इसीलिए मैंने सफर से सम्बंधित हर एक लेख में वहा के पॉजिटिव एनवायरनमेंट को तवज्जो दी। अगले दो साल के अंतराल में मैंने दो और बार छत्तीसगढ़ का टूर किया और छत्तीसगढ़ के मेरे अनुभव में करीब 13 और लेख जोड़े। इससे मेरे व अन्य पाठको के सोचने के तरीके में काफी बदलाव आया।
प्र 4 . हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक लेखक होने के नाते इस दूसरे पहलू की खोज कर उसका आंकलन कितना महत्त्वपूर्ण है ?
उ. एक लेखक होने के नाते अपने पाठक को सूचित रखना मेरी ज़िम्मेदारी है। हम अक्सर किसी भी लोकप्रिय स्पॉट को वहा के प्रसिद्ध और सबसे ज़्यादा चर्चित लैंडमार्क्स से इक्वेट करते हैं। इसलिए मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि अपने पाठकों को विज़िबल ट्रूथ से परे ले जाकर उन्हें एक नयी दुनिया से परिचित किया जाए। मेरा उद्देश्य यही रहता है कि किसी भी स्थल को रोमांटिसाइज़ करने के साथ साथ पाठकों को उसके सन्दर्भ में ज़्यादा से ज़्यादा इन्फोर्मेट किया जाए।
प्र 5 . आपका परिवहन का पसंदीदा तरीका क्या है और क्यों ?
उ. मुझे सड़कों पर से गुजरना पसंद है, कार—बस—ट्रक और रेल सबसे पसंदीदा हैं। ट्रक इसलिए क्योंकि उनसे एक सड़कों को देखने का एक अलग व्युप्वाइंट मिलता है!
स्कूल के ज़माने में जिस हिस्ट्री और ज्यॉग्राफी से मुझे सख्त नफरत थी, उनसे आज बेपनाह मुहब्बत की वजह सिर्फ और सिर्फ वो रोड जर्नीज़ हैं जो मैंने बीते दशकों में की हैं।
हां, दूरी ज्यादा हो, सफर लंबा हो तो ट्रेन सबसे बढ़िया विकल्प है। यात्रा दो—तीन दिन की हो तो मज़ा ही आ जाता है क्योंकि तब रेल का डिब्बा और उसकी एक अदद सीट अपना घर बन जाती है। मैं हिंदुस्तान की फर्राटा रेलों को भी स्लो ट्रैवल का ज़रिया मानती हूं और इस तरह हौले—हौले अपना हिंदुस्तान, अपने देश के लोग, उनकी कल्चर, उनका खान—पान और पहनावा करीब से देखने का मौका मिलता है। फिर, इस तरह का धीमा सफर आपको रिफ्लेक्ट करने का मौका भी देता है।
प्र 6 . आपकी नवीनतम यात्रा का अनुभव संक्षेप में बताइये ?
उ. सच बताऊ तो सिंगापुर जाने का भूत मुझपे कभी सवार नहीं था। इस साल के आगमन पर मुझे सिंगापूर टूरिज्म का इन्वाइट आया जिसका एक अहम् हिस्सा क्रूज़ ट्रिप था। कही न कही मेरे भीतर भी यह परसेप्शन बन गया था कि सिंगापुर इज़ ए शॉपिंग एंड एंटरटेनमेंट डेस्टिनेशन। बादमे वहा के भूगोल के बारे में पढ़ कर जाना कि वहा का सी रूट और लोकेशन काफी प्रभावशाली है। एक दिलचस्प बात यह भी है कि एक ऐसा आइलैंड जिसे कुछ साल पहले 'दी आइलैंड ऑफ़ डैथ' कहा जाता था वह आज एक वर्ल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर के रूप में उभर कर आया है। इतने विशाल स्तर पर मानवता का विकास देखना अपने आप में ही एक 'आई ओपनर' था।
प्र 7 . जमीन, वायु और अब क्रूज पर यात्रा करने के बाद, आपकी 'बकेट लिस्ट' में अगला क्या है ?
उ. ज़ाहिर है अंतरिक्ष ही बचा है! सच्ची कहूं, दिल के किसी कोने में एक चोर ख्वाहिश छिपी है कि रिचर्ड ब्रैन्सन कहीं मुझे पढ़—सुन रहे हों और वर्जिन गैलेक्टिक की पहली न सही दूसरी—तीसरी उड़ान के लिए मुझे न्यौता भेज दें!
प्र 8 . आपको दी गई बैस्ट ट्रैवेल टिप और एक टिप जो आप अगली पीढ़ी के यात्रियों को देना चाहते हैं ?
उ. बेशक, हम—आप अक्सर यह कोट करते हैं कि 'दुनिया एक किताब है और जो घर से बाहर नहीं निकला उसने पहला पन्ना भी नहीं पढ़ा'। लेकिन मेरा मानना है कि सिर्फ बाहर निकलना, घूमना, नई जगह जाना—देखना—अनुभव करना ही काफी नहीं है। हम जब नया भूगोल देखें तो उसे समझने के लिए उससे जुड़ी चीज़ों को जरूर पढ़ें। पोथी पढ़ना भूल रही है नई पीढ़ी। हमारे साहित्य में बहुत खजाना छिपा है, उसे टटोलें। आपको जो खजाने तिब्बत की मानसरोवर झील के तट पर मिलते हैं उतने ही कीमती नग मुराकामी, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, पिको अयर, खुशवंत सिंह, बिल एटकिन, स्टीफन आॅल्टर, हेनरिच हैरर से लेकर मार्को पोलो, कोलंबस, फाहियान, ह्वेन सांग, बर्नियर जैसे लेखकों/मुसाफिरों के सफरनामे को पढ़कर हाथ आते हैं। मैं कहीं भी यात्रा पर निकलने से पहले और लौटने के बाद, उन जगहों/अनुभवों के बारे में बहुत कुछ पढ़ने के लालच से खुद को रोक नहीं पाती हूं।
प्र 9 . आपके अनुसार क्या "ब्लॉग" के लिए हिंदी शब्द होना चाहिए? जो कि हमारे पास अभी नहीं है।
उ. ऐसा नहीं है कि ब्लॉग का हिंदी पर्याय नहीं है, अक्सर चिट्ठा या वेबडायरी के तौर पर हम इसे जानते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि हर शब्द, हर कन्सेप्ट का मतलब अन्य भाषाओं में गढ़ा जाए। मसलन, 'कंप्यूटर' को ही लें। उसका हिंदी अर्थ संगणक है। मगर हम सभी कंप्यूटर ठीक से समझते हैं। तो यह नया शब्द गढ़ने की जिद क्यों? ब्लॉग को हम जस का तस अपना लेने से छोटे नहीं हो जाएंगे। भाषाओं के स्तर पर हमें उदार होना चाहिए, तभी हमारा शब्दभंडार बढ़ता है।
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